• स्वतन्त्रता सेनानी महाशय मनसाराम 'त्यागी’

    जननी जने तो वीर जन या दाता या शूर।
    नहीं तो जननी बांझ रहे, काहे गंवाए नूर।।


    फरवरी 1978 में मुख्य केन्द्र बाढड़ा में मौजिज लोगो एक मीटिंग बुलाई उसमे योजना बनाई इन लोगो के प्रयत्न से अगस्त 1978 में गुरुकुल फिर चालू हो गया


    जीन्द रियासत के पिछड़ापन क्षेत्र बाढड़़ा के गांव पंचगांव में चौ० अमीलाल के घर जन्म लेकर अपने त्याग से प्रदेश में अपने गांव का नाम रोशन कर दिया। बालक का नाम मनसाराम रखा गया जिसने प्रदेश की जनता के सामने अपनी सारी ७० बीघे जमीन प्रदेश की लड़कियों के नाम दान कर अभूतपूर्व उदाहरण रखा। पिछड़ा क्षेत्र होने के कारण यहां उस समय शिक्षा प्राप्ति का कोई साधन नहीं था, इसलिए आप अशिक्षित ही रहे। बाद में कुछ पढऩा-लिखना सीख लिया। आपका बचपन हम उम्र बच्चों के साथ खेलने में बीता। कुछ बड़ा होने पर गाएं चराने और खेती के कार्य में पिता का हाथ बटाने लगे।
    उस समय मनोरंजन के लिए भजनोपदेशक और सांगी गांवों में घूमते रहते थे। उन्हें देख सुनकर आपकी रुचि भी इसी ओर हो गई। आपने भी गाना सीख लिया। तब भिन्न-भिन्न गांवों में अलग-अलग समयों में मेले लगते थे जिनमें कुश्तियों और गाने बजाने वालों का दौर चलता था। आप भी ऐसे समय मेलों में भजन गाकर लोगों का मनोरंजन करते थे।
    आचार्य भगवान्देव (स्वामी ओमानन्द सरस्वती) बार-बार बताया करते थे कि महाशय जी युवावस्था में मय के शौकीन हो गए थे। आचार्य जी गांव रुदड़ौल में यज्ञ करवाने आए और मा० नानकचन्द जी से मिलने डालावास आये तब उनका परिचय महाशय जी और उनके साथियों से हुआ। दूसरी बार जब आचार्य जी डालावास आए महाशय जी से मिलने गये तब वे शराब पीने की तैयारी कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देख, आचार्य जी वापिस हो लिए, उन्हें वापिस जाते देख इन्होंने कहा कि आचार्य जी फिर कब आओगे? आचार्य जी ने उत्तर दिया कि जब आप लोग शराब पीना छोड़ देंगे और मा० नानकचन्द जी बुलाएंगे तब आ जाऊंगा। महाशय जी की टोली ने उसके बाद शराब पीना छोड़ दिया और मास्टर जी ने आचार्य जी को सूचित कर दिया और वे आ गए। उन्होंने आपको लड़कियों को पढ़ाने का प्रबन्ध करने का सुझाव दिया। आचार्य जी शिक्षा के प्रसार और आर्यसमाज के प्रचार के लिए ही घूमते रहते हैं। आचार्य जी के प्रोत्साहन पर ही महाशय जी ने अपनी कुल भूमि ७० बीघे प्रदेश की लड़कियों के नाम दान कर दी। उसके बाद आपको 'त्यागी जी' के नाम से पुकारा जाने लगा।
    उस समय स्वतन्त्रता आन्दोलन भी जोर पकड़ चुका था। आप गांवों में घूम-घूमकर लोगों को इस आन्दोलन से जोड़ते और लड़कियों को शिक्षित करने के लिए कहते। मौजिज लोगों की कमेटी का गठन किया गया। पास के ही मा० माणिकचन्द बंधुओं की जमीन में मिट्टी थी वहीं ईंटें पथवाकर पकाई गई। सबसे पहले निकटवर्ती गांव माण्ढी हरिया के चौ० लायकराम ने कुआं खुदवाया। उनके देहांत के बाद उनके पुत्र चौ० अमरसिंह ने उसे पक्का करवाया। गुरुकुल के भवन के लिए एक बड़ा छप्पर जिसके दोनों ओर दो छोटी कोठडिय़ों का निर्माण करवाया। गुरुकुल के चारों ओर चारदीवारी करवाई और उसके बाहर एक कमरा, एक भोजनालय का कमरा बनवाया और लड़कियों को शिक्षित करने का कार्य प्रारम्भ हुआ। शिक्षा का माध्यम हिन्दी और संस्कृत रहा। महर्षि दयानन्द की शिक्षा पद्धति का अनुसरण किया, जो पाठ्यक्रम गुरुकुल झज्जर में था वही पाठ्यक्रम यहां भी लागू कर दिया। यह गुरुकुल 1947 में प्रारम्भ हो गया तथा सन् 1956 तक चलता रहा।
    महाशय जी गुरुकुल का पूरा कार्यभार कार्यकारिणी को सौंपकर स्वयं आन्दोलन में कूद पड़े। आपका स्वर मधुर था। बाजे के साथ गाते थे। आपको सुनने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी। जब लोग आपसे पूछते कि महाशय जी आजादी के बाद क्या होगा? तो आप जवाब देते कि 'अब तो राजा को रानी जन्म देती है, आजादी के बाद राजा ढोल/मतपेटी से पैदा होगा। थारे खेतां में छान्या (फूस की कच्ची झोंपडिय़ां) में और जाटियां में लट्टू (बिजली के बल्ब) चसैंगे।' चौ० बंसीलाल मुख्यमंत्री हरियाणा ने जब १९७२ में बाढड़़ा बिजली घर का उद्घाटन किया तब कहा था कि महाशय जी की भविष्यवाणी आज सत्य सिद्ध हो गई है। उसके बाद भी अपने भाषणों में वे यह बात दोहराते रहते थे।
    जब मैं रात को सड़क के मार्ग से जाते नलकूपों पर बिजली के बल्ब जलते देखता हूँ तो महाशय जी की बात याद आ जाती है। मानहेरू के मा० बनारसीदास गुप्त जो बाद में हरियाणा के मुख्यमंत्री बने वे भी शनिवार को आपके साथ आ मिलते थे और दो दिन प्रचार में साथ दे सोमवार को वापिस चले जाते।
    १५ अगस्त सन् १९४७ को देश अंग्रेजों से तो आजाद हो गया परन्तु देशी रियासतों के राजाओं का दमनचक्र तो चलता ही रहा। इससे तंग आकर आस-पास के इलाके के लोगों ने दादरी की कचहरी को घेर लिया और किला मैदान में भारी जनसमूह इकट्ठा हो गया। महाराजा जीन्द के विरोध में नारे लगाए और पंचगांव के ही चौ० महताबसिंह को राजा चुन लिया। रामकिशन गुप्ता को निजामत का जज और महाशय मनसाराम को बाढड़़ा थाना का थानाध्यक्ष चुनकर समानान्तर सरकार का गठन किया। यह समानान्तर सरकार १७ दिन तक चली, उसके बाद महाराजा जींद के साथ समझौता हुआ और उनके मन्त्रिमण्डल में चार मंत्री किसान समुदाय से शामिल कर लिए गए।
    सन् १९५६ में गुरुकुल बन्द होने पर महाशय जी गांव छोड़कर निकटवर्ती गांव धारणी की बणी में कुटिया बनाकर बिना दीक्षा लिए संन्यासी जैसा जीवन बिताने लगे। इस बीच आपने कुछ देशी औषधियों का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया और छोटी-छोटी बीमारियों का इलाज भी करने लगे। आपकी आत्मा को अब भी शान्ति नहीं मिल रही थी, आप यह देखकर दु:खी रहते थे कि जमीन भी दान दी और वहाँ गुरुकुल भी नहीं चला ऐसा दु:ख आप अपने मिलने वाले साथियों के साथ में प्रकट करते रहते थे।
    मा० सुमेरसिंह डालावास (कन्या गुरुकुल महाविद्यालय पंचगांव के भूतपूर्व प्रधान) बताते हैं कि सन् ७७ में महाशय जी मेरे पास आकर कहने लगे कि तुम यह काम कर सकते हो। गुरुकुल दुबारा चालू करो ताकि मैं सुख से जी सकूं। उनके निवेदन को सुन कर फरवरी १९७८ में मुख्य केन्द्र बाढड़़ा में मौजिज लोगों की एक मीटिंग बुलाई उसमें गुरुकुल दोबारा चालू करने की योजना बनाई। महाशय हरिश्चन्द्र सिधणी जो तब बैराण रहने लगे थे ने देवराला के सेठ बनवारीलाल का नाम लिया कि वह पूरा परिवार आर्यसमाजी है इस कार्य में पूरी मदद कर सकता है। इन लोगों के प्रयत्न से अगस्त १९७८ में गुरुकुल फिर चालू हो गया। गुरुकुल को दुबारा चालू देखकर महाशय जी खुश हो गए और कहने लगे मेरी उम्र और बढ़ गयी है और मैं अब सुख का जीवन जी सकूंगा।
    ज्ञानी जैल सिंह जब भारत के राष्ट्रपति बने तो आप उनसे मिलने गए। आप दोनों स्वतन्त्रता आन्दोलनों के दौरान जेल में साथ रह चुके थे। राष्ट्रपति जी ने आपको स्वतन्त्रता सेनाी का प्रमाण पत्र दिया और आपको स्वतन्त्रता सेनानी की पेंशन भी मिलने लगी।
    जीवन के अन्तिम दिनेां में आप गांव वापिस लौट आए, यहां आपके चचेरे भाई चौ० नत्थूराम के पुत्र श्री सत्यपाल ने आपकी तन-मन से सेवा की और पुण्य कमाया। २७ अगस्त सन् १९८१ में आपका स्वर्गवास हो गया। आसपास के गांवों के हजारों लोगों, हाई स्कूलों डालावास के पूरे स्टॉफ, उच्च श्रेणियों के छात्रों की उपस्थिति में गुरुकुल भूमि में आपका दाह संस्कार मैंने (मा० हरिसिंह प्रभाकर ने) वैदिक रीति से करवाया।
    महाशय जी का जीवन सादा था। उनकी वेशभूषा सादी थी। घुटनों तक डोवटी (गाँवों में जुलाहे द्वारा बना खद्दर) की धोती, डोवटी का कुर्ता, ऊपर डोवटी की ही जैकेट। आप अपने कपड़े स्वयं सुई से सीते थे। सिर पर पहले टोपी रखते थे बाद में डोवटी का तौलिया रखने लगे। हाथ में लाठी रखते थे। जेबों में दवाई की पुडिया रहती थी जो किसी पीडि़त को यूं ही दे दिया करते थे। आपका त्यागमय जीवन लोगों की भलाई में ही बीता। जब तक कन्या गुरुकुल महाविद्यालय चलता रहेगा और लड़कियों की शिक्षा का प्रसार करता रहेगा तब तक आपका नाम भी अमर रहेगा। यह संस्थान आने वाली पीढिय़ों का भी पथ प्रदर्शन करता रहेगा। ऐसे-ऐसे महापुरुष कभी-कभी ही जन्म लेते हैं। हम भगवान् से उनकी आत्मिक शान्ति के लिए प्रार्थना करते हैं।